हमारे स्वार्थ पूर्ण आचरण और पर्यावरण विरोधी आदतों के कारण आज मानव सभ्यता विनाश के कगार पर खड़ी है। हमारे स्वार्थ और आर्थिक लाभ की सोच के कारण प्रकृति हमारे लिए केवल अंतहीन लालच की पूर्ति हेतु संसाधन मात्र बनकर रह गई है। हमें नदी से पानी नहीं रेत चाहिए, पहाड़ से औषधि नहीं पत्थर चाहिए, पेड से छाया नहीं लकड़ी चाहिए और खेत से अन्न नहीं नगद फसल चाहिए। हमें ध्यान रखना होगा कि पृथ्वी हमारी धरोहर है तथा इसका संरक्षण हमारी जिम्मेदारी है। विकास करें लेकिन प्रकृति के विनाश और मनुष्य के अस्तित्व को खतरे में डालकर नहीं बल्कि प्रकृति के साथ चलते हुए। हमें प्राकृतिक संपदाओं का संरक्षण पूर्ण सदुपयोग करना होगा न कि दोहन। 

हमारे गणतंत्र के 73 वर्ष पूर्ण होने की हार्दिक बधाई। आजादी के बाद हमने अपने देश को एक मजबूत संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में स्थापित किया है। हमारी प्रगति को संपूर्ण विश्व ने स्वीकारा है तथा आज हम एक गौरवशाली देश के स्वाभिमानी नागरिक के रूप में विश्व में अपना सर ऊंचा रख सकते हैं। 
चँहुमुखी विकास की प्रक्रिया ने देश को एकजुट रखने में सहायता भी की है। परंतु पिछले कुछ समय की घटनाओं से हमारी संपूर्ण विकास संबंधी सोच में पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए बदलाव की जरूरत महसूस हुई है। उत्तराखंड के जोशीमठ एवं आसपास के क्षेत्र में घरों में पड़ती दरारें और धंसती जमीन जोशीमठ के अस्तित्व को खतरे में डालने लगी है। जोशीमठ पर मंडराते खतरे को लेकर पूरा देश चिंतित है। पहले भी उत्तर के पहाड़ी क्षेत्रों में प्राकृतिक आपदाओं ने मानव जीवन के लिए गंभीर संकट उत्पन्न किया है। विकास की योजना बनाते समय यह ध्यान नहीं रखा जा रहा है कि हिमालय एक अपेक्षाकृत युवा पर्वत माला है। उसकी संरचना ऐसी नहीं है कि वहां हर मौसम में घूमा जाए, इसीलिए सदैव से तीर्थाटन भी मौसम और समय के अनुकूल ही किया जाता था। हिमालय में बेतहाशा निर्माण तथा उसके लिए पेड़ों को काटना, बड़े बांधों का निर्माण, सड़कों का निर्माण, सुरंगों का खोदना तथा संपूर्ण विकास प्रक्रिया में पर्यावरण के प्रति चिंता का घोर अभाव इस क्षेत्र की संपूर्ण विकास गाथा पर एक बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा रहा है।
भारत की ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व की विकास की कहानी प्राय: इसी प्रकार की है। प्रतिवर्ष लाखों हेक्टयर कृषि भूमि बेकार होकर मरूभूमि में  परिवर्तित हो जाती है। वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण ऐसी भूमि जहां वन उगते थे, निम्न कोटि की कृषि भूमि में परिवर्तित हो जाती है। पिछले 500 साल में मनुष्य की गतिविधियों के चलते धरती के लगभग दो तिहाई वन नष्ट हो चुके हैं। बढ़ते हुए कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन के कारण समूचे विश्व का पर्यावरण लगातार गर्म होता जा रहा है।  फलस्वरूप ओजोन परत लगातार सिकुड़ रही है। शुद्ध वायु और शुद्ध जल के लिए हम तरस रहे है। दुनिया के कई इलाकों में भयंकर तूफान, बारिश, बाढ़ और भू-स्खलन के नजारे दिख रहे हैं। ध्रुवीय प्रदेशों में हिमखंडों के पिघलने के कारण सागर की सतह ऊंची होती जा रही है जिसके कारण तटीय क्षेत्रों के नगरों को डूबने का खतरा होता जा रहा है। ग्राउंड वॉटर की खपत तेजी से होने के कारण उसका स्तर 60 प्रतिशत नीचे चला गया है। नदी जोड़ो परियोजनाओं के कारण लाखों पेड कटने का अंदेशा है तथा बड़ी मात्रा में खेती योग्य जमीन डूब में आ जायेगी। विकास की इस दौड़ में जल, जंगल, जमीन, जीव-जंतु तथा अंततोगत्वा मानव सभी के अस्तित्व पर गहरा संकट मंडरा रहा है। विकास की अंधी दौड़ में हम यह भी भूल गए है कि पर्यावरण के विनाश की कीमत पर कोई भी विकास अंततोगत्वा विनाश ही सिद्ध होगा। 
मानव जाति विराट मात्रा में बढ़ते तकनीकी संसाधनों के माध्यम से प्राकृतिक भंडारोंं को तेजी से खर्च करके अपनी सभ्यता में विकास की परिस्थतियों को निरंतर सुधारती तो आ रही है।  परंतु, प्रकृति को जीतने के प्रयास में मनुष्य ने अपने जीवन की स्वाभाविक बुनियाद पर्यावरण  को काफी हद तक बिगाड़ दिया है। विकास की बात करते समय हमें अविचारित विकास योजनाओं के कारण हो रहे प्रकृति के विनाश की ओर ध्यान देना होगा। 
इन सब खतरों से बचाव तभी संभव है जब सारी मानव जाति उठ खड़ी हो और पर्यावरण की रक्षा करना हर व्यक्ति का दात्यिव बन जाए। अन्यथा, वह दिन दूर नहीं है जब यह विकास ही मानव जाति के विनाश का कारण बन जाए। 
एक बार पुन: गणतंत्र दिवस एवं नववर्ष की शुभकामना सहित..