किसी भी समाज में भविष्य की पीढ़ी तैयार करने में शिक्षण संस्थानों और शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। हमारे देश की आबादी का लगभग एक तिहाई हिस्सा अपना अधिकांश समय स्कूल-कॉलेजों में बिताता है। शिक्षा विद्यार्थियों के  सर्वांगीण विकास का मूल आधार है तथा यह विद्यार्थी के ज्ञान के साथ व्यवहार, सोच और दृष्टिकोण में परिवर्तन लाती है। उनमें लोकतांत्रिक अधिकारों के प्रति जागरूकता लाती है  और उन्हें समाज में सही रूप में स्थापित करती है। एक शिक्षक ही विद्यार्थी का जीवन गढता है।  विद्यालयों एवं उच्च शिक्षण संस्थानों में भौतिक संसाधनों एवं प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी के कारण हमारी शिक्षा व्यवस्था अभी भी वांछित स्तर की नहीं हो पाई है। 

नई शिक्षा नीति आने के बाद शिक्षा व्यवस्था की गुणवत्ता में सुधार लाने और शिक्षा को रोजगारोन्मुखी बनाने के लिए बहुत कुछ कहा जा रहा है। इस नई नीति के क्या परिणाम आएंगे यह तो समय ही बताएगा, परंतु हमारी शिक्षा व्यवस्था की वर्तमान स्थिति का धरातल पर संपूर्ण आंकलन कर ही उसमें सुधार की कार्ययोजना तैयार की जा सकती है।
देश में लगभग 15 लाख विद्यालय, 43000 महाविद्यालय, 1100 विश्वविद्यालय, 2500 इंजीनियरिंग कॉलेज, 600 मेडिकल कॉलेज तथा 6200 से ऊपर मैनेजमेंट पढ़ाने वाले संस्थान,  23 आई.आई.टी., 13 ए.आई.एम.एस. तथा 20 आई.आई.एम. कार्यरत हैं। परंतु, विश्व के 400 सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में हमारे मात्र तीन शिक्षण संस्थान हैं। शोध संबंधी कार्य के छपने वाले लेखों में भारत का योगदान लगभग 4.6 प्रतिशत ही रहता है। जबकि अमेरिका का योगदान लगभग 33 प्रतिशत है। यह विचारणीय है कि विदेशी शोध संस्थानों में कार्यरत भारतीयों का वहां किए जा रहे शोध कार्य में उल्लेखनीय योगदान रहता है। देश में प्रतिवर्ष लाखों स्नातक एवं इंजीनियरिंग छात्र तैयार होते हैं, जिनमें से अधिकांश या तो बेरोजगार रहते है या उन्हें उनकी योग्यता के अनुरूप रोजगार नहीं मिलता। यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारे देश में शिक्षण संस्थान केवल ऐसी डिग्री देने का माध्यम बनकर रह गए हैं, जिसकी विद्यार्थी के भावी जीवन में उपयोगिता बहुत कम रहती है।
अपने नागरिकों को अच्छी शिक्षा सुविधा सुलभ कराना किसी भी सरकार का प्राथमिक दायित्व होता है। विकसित देशों में जीडीपी का 6 प्रतिशत शिक्षा पर खर्च किया जाता है वहीं भारत में यह मात्र 3.1 प्रतिशत है। हालांकि नई शिक्षा नीति में इसे 6 प्रतिशत करने का लक्ष्य रखा गया है। 
देश के विद्यालयों में लगभग 10 लाख शिक्षकों की कमी है तथा 1,20,000 ऐसे विद्यालय है जहां केवल एक शिक्षक है। मानव संसाधन विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार देश में लगभग 3 लाख प्रोफेसर की कमी है। औसतन महाविद्यालय/ विश्वविद्यालयों में 25 से 40 प्रतिशत रिक्तपद है। सरकारी शिक्षण संस्थानों में संसाधनों की उपलब्धता बहुत ही खराब है, जिसके कारण उन पर जो भी खर्च किया जा रहा उसका सही परिणाम नहीं निकल पाता है। जबकि सरकारी शिक्षण संस्थानों को एक आदर्श संस्थान के रूप में होना चाहिए। महंगी फीस होने के कारण अच्छे निजी शिक्षण संस्थान आम आदमी की हैसियत के बाहर हंै। कुछ निजी संस्थानों के अतिरिक्त अधिकांश में भी स्थिति संतोषपद्र नहीं है तथा शिक्षकों का सर्वाधिक शोषण वहीं पर है। फलस्वरूप 86वें संविधान संशोधन द्वारा 6 से 14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने एवं सर्वशिक्षा अभियान के बाद भी देश की लगभग एक चौथाई आबादी अभी भी अशिक्षित है। 
शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए सबसे ज्यादा आवश्यकता शिक्षकों के स्तर में सुधार तथा उन्हें दी जाने वाली सुविधाओं में वृद्धि करने की है। उन्हें अपने विषय के ज्ञान के अतिरिक्त शिक्षा देने की कला, मनोविज्ञान आदि का समय-समय पर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि वह अपने व्यवसायिक ज्ञान को आदिनांक रख सकें। वर्तमान में विद्यालयीन शिक्षकों का विभिन्न अन्य सरकारी कार्यो/ सर्वे में उपयोग किया जाता है जिसका विपरीत प्रभाव उनके मूल दायित्व पर पड़ता है तथा अध्यापन कार्य प्रभावित होता है। 
समय की आवश्यकताओं को देखते हुए शिक्षा में तकनीक का अधिक से अधिक उपयोग करने की आवश्यकता है। जिसके लिए अतिरिक्त संसाधनों की जरूरत होगी। नई शिक्षा नीति में हिन्दी तथा अन्य स्थानीय भाषाओं में उच्चशिक्षा एवं तकनीकी शिक्षा देने की बात कही गई हैं, परंतु इन सबके लिए हमें इन भाषाओं में अच्छी पठन साम्रगी तैयार करनी होगी। केवल दिखावे के लिए मातृभाषा में उच्च शिक्षा देने से हमारी शिक्षा स्तर के पर विपरीत प्रभाव ही पड़ेगा। 
शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार एक लंबी, सतत् एवं बहुआयामी प्रक्रिया है, जिसमें सभी हितधारियों: सरकार, विद्यार्थी, शिक्षक एवं निजी संस्थानों को संपूर्ण गंभीरता से प्रयास करने होंगे। 
शुभकामनाओं सहित...