नहीं रहा भाजपा की त्रिमूर्ति का शिखर, जोशी-आडवाणी को खलेगी कमी

पूर्व प्रधानमंत्री, भारत रत्न और बीजेपी के दिग्गज नेता अटल बिहारी वाजपेयी (Atal Bihari Vajpayee) का गुरुवार को 93 साल की उम्र में निधन हो गया. गुरुवार शाम पांच बजकर पांच मिनट पर नई दिल्ली के एम्स में पूर्व पीएम वाजपेयी ने अंतिम सांस ली. वाजपेयी के निधन से वह जोड़ी भी टूट गई जिसे बीजेपी की त्रिमूर्ति के नाम से जाना जाता था.
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के साथ दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी मिलकर भाजपा की वह त्रिमूर्ति बने, जिसने इस पार्टी को सत्ता का स्वाद चखाया.
तीनों लोग अलग-अलग बैकग्राउंड से आते थे कोई कवि था, तो कोई पत्रकार तो कोई कॉलेज में प्रफेसर लेकिन आरएसएस वह जगह बनी जहां तीनों की मुलाकात हुई और बाकी इतिहास बन गया.
अटल बिहारी वाजपेयी के पिता उत्तर प्रदेश में आगरा जिले के प्राचीन स्थान बटेश्वर के मूल निवासी थे. अटल बिहारी वाजपेयी के पिता पण्डित कृष्ण बिहारी वाजपेयी मध्य प्रदेश की रियासत ग्वालियर में अध्यापन कार्य करते थे. ग्वालियर से ही वाजपेयी की शुरुआती शिक्षा-दीक्षा हुई. छात्र जीवन से वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक बने और तभी से राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेते रहे. साथ ही अपनी कविताओं की वजह से जल्द ही राष्ट्रीय मंच पर पहचाने जाने लगे. इसके बाद उन्होंने डॉ० श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के निर्देशन में राजनीति का पाठ पढ़ा. साथ ही वाजपेयी ने लंबे समय तक राष्ट्रधर्म, पांचजन्य और वीर अर्जुन आदि राष्ट्रीय भावना से ओत-प्रोत अनेक पत्र-पत्रिकाओं का सम्पादन भी किया. अटल मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी सरकार में विदेश मंत्री बने थे. 1968 से 1973 तक अटल बिहारी वाजपेयी जनसंघ के अध्यक्ष रहे और वे जीवन भर भारतीय राजनीति में सक्रिय रहे.
वहीं लालकृष्ण आडवाणी का जन्म 8 नवंबर 1927 को उस समय के एकीकृत हिन्दुस्तान के कराची शहर में हुआ. आडवाणी को 1947 में कराची में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ में सचिव बनाया गया. इसके साथ ही उन्हें मेवाड़ भेजा गया, जहां सांप्रदायिक दंगे हो रहे थे. 1951 में जब श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जनसंघ की स्थापना की तो आडवाणी इसके सदस्य बन गए. जनसंघ में कई पदों पर अपनी सेवाएं देने के बाद आडवाणी 1972 में इसके अध्यक्ष चुने गए. केन्द्र में जब पहली बार मोरारजी देसाई के नेतृत्व में गैर कांग्रेसी, जनता पार्टी की सरकार बनी तो आडवाणी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की जिम्मेदारी दी गई. साथ ही 1986, 1993 और 2004 में आडवाणी को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का अध्यक्ष चुना गया. 1989 में बीजेपी ने आडवाणी के नेतृत्व में राम जन्मभूमि का मुद्दा प्रमुखता से उठाया. जिसकी परिणिति 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के रूप में सामने आई. आडवाणी 2005 में पाकिस्तान यात्रा पर गए और मुहम्मद अली जिन्ना की कब्र पर जाकर उनकी तारीफ की तो देशभर में उनकी खूब आलोचना हुई. 2004 में अटलबिहारी वाजपेयी के सक्रिय राजनीति से सन्यास लेने के बाद आडवाणी बीजेपी के सबसे बड़े और प्रमुख नेता बन गए. आडवाणी ने अपने प्रफेशनल करियर की शुरुआत फिल्म क्रिटिक के तौर पर की थी. वे ऑर्गनाइजर के संपादक भी रहे और साथ ही उन्होंने कई किताबें भी लिखी हैं.
त्रिमूर्ति के तीसरे नेता मुरली मनोहर जोशी भले ही कम महत्वपूर्ण पद मिले हों, लेकिन उन्होंने भी बीजेपी को यहां तक पहुंचाने में काफी मेहनत की है. भारतीय जनता पार्टी के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में कानपुर से सांसद बीजेपी नेता मुरली मनोहर जोशी का जन्म 5 जनवरी 1934 को दिल्ली में हुआ था. उनका पैतृक निवास-स्थान वर्तमान उत्तराखंड के कुमायूं क्षेत्र में है. उनकी शुरूआती शिक्षा अल्मोड़ा जिले के चांदपुर से हुई. उन्होंने अपनी बीएससी की पढ़ाई मेरठ कॉलेज से की और एमएससी इलाहाबाद विश्वविद्यालय से किया, जहां प्राध्यापक राजेन्द्र सिंह उनके शिक्षक थे जो बाद में आरएसएस के सरसंघचालक बने. उनसे जोशी काफी प्रभावित हुए. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से ही उन्होंने अपनी डॉक्टरेट की उपाधि भी अर्जित की. अपनी पीएचडी करने के बाद वह इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ही पढ़ाने लगे. अपनी युवावस्था में डॉ. जोशी आरएसएस से जुड़ गए और 1952-53 में गौ रक्षा संबंधी आन्दोलनों में अपनी प्रमुख भागीदारी दी. इसके अलावा 1955 में उत्तर प्रदेश में हुए कुम्भ किसान आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर संघर्ष किया. आपातकाल के दौरान 26 जून 1975 से लोकसभा चुनाव 1977 तक वह जेल में रहे. 1977 में जनता पार्टी की सरकार बनी और जोशी अल्मोड़ा से विधायक चुने गए. इसके बाद जोशी को जनता पार्टी का राष्ट्रीय महासचिव बनाया गया. 1980 में जोशी ने भारतीय जनता पार्टी की स्थापना में अपना सहयोग दिया और राष्ट्रीय अध्यक्ष बन गए. 1996 में बीजेपी की 13 दिनों की सरकार में जोशी गृह मंत्री थे. डॉ. जोशी तीन बार इलाहाबाद से सांसद रहे. 2004 के लोकसभा चुनावों में उन्हें हार का सामना करना पड़ा. 15 वीं लोकसभा में उन्होंने वाराणसी से बीजेपी उम्मीदवार के तौर पर जीत दर्ज की और 16 वीं लोकसभा चुनाव में वह कानपुर से सांसद चुने गए.
ऐसे में तीनों की जिंदगी में आरएसएस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. तीन अलग-अलग रास्तों से राजनीति में आए इन तीनों नेताओं ने कांग्रेस पार्टी के विकल्प में एक मजबूत पार्टी बीजेपी को जन्म दिया. संघ बैकग्राउंड से आने की वजह से तीनों की घनिष्ठता बढ़ी और वे त्रिमूर्ति बनकर बीजेपी को आगे ले जाने में लग गए.
1980 में तीनों ने मिलकर भारतीय जनता पार्टी की स्थापना की. 6 अप्रैल, 1980 में बनी भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष पद का दायित्व भी वाजपेयी जी को सौंपा गया. अटल पहली बार 16 से 31 मई, 1996 तक वे प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे.
आपको बता दें कि अटल बिहारी वाजपेयी की लालकृष्ण आडवाणी से पहली बार मुलाकात होने का भी गजब किस्सा है. अटल बिहारी वाजपेयी पंडित श्यामा प्रसाद मुखर्जी के साथ ट्रेन से मुंबई जा रहे थे. मुखर्जी कश्मीर के मुद्दे पर पूरे देश का दौरा कर रहे थे. लालकृष्ण आडवाणी कोटा में प्रचारक थे. आडवाणी को पता लगा कि श्यामा प्रसाद मुखर्जी इस स्टेशन से गुजरने वाले हैं तो वह मिलने आ गये. वहीं पर मुखर्जी ने दोनों की मुलाकात करवाई थी.
हालांकि अटल बिहारी वाजपेयी और आडवाणी की जोड़ी पर आरोप लगता था कि वह इसमें जोशी को नहीं शामिल करना चाहते हैं. खासकर उस दौरान मीडिया इस पर कई बार सवाल उठाता था कि वाजपेयी और आडवाणी जोड़ी को ज्यादा प्रमोट कर त्रिमूर्ति को बीजेपी के प्रचार में जगह नहीं दी जा रही है.
इस आरोप पर वाजपेयी ने गजब उत्तर दिया था. इस सवाल के जवाब में अटल ने कहा कि तीन नाम जोड़ने के साथ नारा ठीक नहीं बनता है. नारा लगाने में कठिनाई होती है इसलिए जोशी का नाम नहीं जोड़ा जाता है. हालांकि वाजपेयी ने स्वीकार किया था कि त्रिमूर्ति है
वहीं नारे की बात भी अटल की ओर से मजाक था क्योंकि 80 के दशक में एक नारा काफी कहा जाता था कि 'बीजेपी की तीन धरोहर- अटल, आडवाणी, मुरली मनोहर''. यह नारा बिना जोशी के नाम के पूरा नहीं हो सकता था.
वहीं वर्तमान में भाजपा सत्ता में हैं, हालांकि वाजपेयी जी ने पार्टी और इस धरती दोनों से विदा ले ली है. वहीं बाकी ये दोनों शीर्ष नेता पार्टी के लिए निर्णय लेने वाली दो अहम समितियों- संसदीय बोर्ड और केंद्रीय चुनाव समिति से बाहर हैं. जोशी और आडवाणी को अटल की कमी जरूर खल रही है. अंतिम समय में उनके हावभाव से यह झलका भी. वाजपेयी की मौत से आडवाणी को काफी दुख पहुंचा है. मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उनकी मौत की खबर सुनकर आडवाणी ने खुद को कमरे में बंद कर लिया था और सीधे श्रद्धांजलि देने कृष्ण मेनन मार्ग पहुंचे थे. आडवाणी ने वाजपेयी की मौत पर जारी लेटर में अपने और वाजपेयी की 65 साल की दोस्ती को याद किया और आपातकाल के दौरान संघर्षों का भी जिक्र किया. वहीं जोशी ने भी अंतिम समय में वाजपेयी से मुलाकात की थी और काफी गमगीन होकर बाहर निकले थे. अटल बिहारी वाजपेयी के जाने के बाद अब ये त्रिमूर्ति स्वभाविक रुप से खत्म हो गई है.
अब भले ही इस त्रिमूर्ति का शिखर दुनिया छोड़कर चला गया हो और आडवाणी एवं जोशी मार्गदर्शक मंडल में शामिल हों लेकिन भाजपा की राजनीति में एक वक्त ऐसा भी था जब अटल बिहारी वाजपेयी के साथ इनकी तिकड़ी के बिना पार्टी के अस्तित्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी.