लैंगिक समानता के लिए लड़ाई जारी है...

आजादी के 77 साल बाद आज भी महिलाओं के समक्ष सबसे बड़ी चुनौतियां लैंगिक असमानता, सामाजिक भेदभाव और रूढि़वादिता, हिंसा से बचाओ और सुरक्षा, कार्यस्थल और परिवारिक जिम्मेदारी में संतुलन, कार्यस्थल के पूर्वागृह से निपटना तथा आर्थिक सशक्तिकरण है। देश में लिंगानुपात विषमता बढ़ती जा रही है तथा महिलाओं के विरूद्ध हिंसा जिसमें लिंग चयनात्मक, गर्भपात, भ्रूण हत्या तथा यौन हिंसा शामिल है में वृद्धि देखी जा रही है। दहेज की कुप्रथा का अंत भी दिखाई नहीं पड़ रहा। महिलाओं की साक्षरता दर अभी भी पुरुषों की तुलना में 16 प्रतिशत कम है तथा बालिकाओं की स्कूल ड्रापआउट दर चिंताजनक है। महिलाओं का राजनैतिक एवं आर्थिक सशक्तिकरण अभी भी वांछित स्तर का नहीं है।
21वीं शताब्दी के 25 वर्ष पूर्ण होने के बाद भी अपने बराबरी के अधिकार के लिये महिलाओं की लड़ाई जारी है। भारत के नेतृत्व में 2023 में जी-23 के देशा के समूह में महिला केंद्रित विकास के संबंध में सहमति बनी थी। विश्व के इन महत्वपूर्ण नेताओं ने एक मत से कहा था कि आर्थिक विकास में महिलाओं की पूर्ण, प्रभावी तथा अर्थपूर्ण सहभागिता किसी भी देश की अर्थव्यवस्था के बहुआयामी विकास के लिए आवश्यक है, परंतु अभी भी इस लक्ष्य की पूर्ति की मंजिल दूर दिखाई दे रही है।
यह एक आम धारणा है कि राजनीति में महिलाओं की समुचित भागीदारी कल्याणकारी नीतियों को एवं कारपोरेट क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी संगठन में बराबरी एवं निष्पक्षता की संस्कृति को बढ़ावा देती है। लगभग 120 देशों के बारे में आंकड़ों का विश्षलेण करने पर पाया गया है कि संसद/मंत्रीमंडल में महिलाओं के बढ़े हुए प्रतिनिधित्व का सीधा प्रभाव स्वास्थ्य सेवाओं तथा सामाजिक कल्याण के खर्चे में वृद्धि के रूप में पड़ता है। इसका सीधा प्रभाव शिशु मृत्यु दर में कमी, बेहतर पेयजल व्यवस्था तथा स्कूलों में बढ़ी छात्र दर के रूप में देखा गया है। भारत में ही ग्राम पंचायत स्तर पर महिलाओं के बढ़े प्रतिनिधित्व का सकारात्मक परिणाम बालिका शिक्षा दर में वृद्धि तथा ग्रामीण स्तर पर अधोसंरचना के सुधार के रूप में परिलक्षित हुआ है। बैंैकिंग क्षेत्र में भी उच्चस्तर पर महिलाओं की उपस्थिति का असर एनपीए में कमी के रूप में देखा गया। अधिकांश महिलाओं द्वारा नेतृत्व की जा रही कंपनियों में लाभ भी उच्चस्तर का पाया जाता है।
अभी भी भारत में महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व विश्व स्तर से कम है। विश्व के विकसित देशों में संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 23 प्रतिशत तथा मंत्रीमंडल में 20 प्रतिशत है। विश्व के केवल 87 देशों में कभी न कभी कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष रही है, जबकि 112 देशों में, जिनमें विश्व की सबसे ताकतवर लोकतांत्रिक व्यवस्था संयुक्त राज्य अमेरिका भी शामिल है, कोई महिला राष्ट्राध्यक्ष नहीं रही है। हमारे यहां लोकसभा में महिला प्रतिनिधित्व 14 प्रतिशत, राज्य सभा में 15 प्रतिशत तथा मंत्रीमंडल में 7 प्रतिशत है। अभी भी महिलाओं को राजनैतिक पदों पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। समाज की पितृसत्तात्मक सोच के कारण ग्रामीण स्तर पर अभी भी महिला प्रतिनिधियों द्वारा लिये जाने वाले अनेक निर्णय प्राय: उनके पिता/पति द्वारा ही लिये जाते हैं।
कंपनीज एक्ट-2013 के प्रावधानों के कारण कंपनी बोर्ड स्तर पर महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ा है तथा देश में लगभग 16 प्रतिशत कंपनी बोर्ड सदस्य महिलाएं है। विभिन्न कंपनियों में उच्च प्रबंधक स्तर पर 22 प्रतिशत स्थान पर महिलाएं है। अभी भी देश में कार्य बल में महिलाओं की सहभागिता केवल 42 प्रतिशत है। इसका प्रमुख कारण महिलाओं द्वारा परिवार की देखभाल करना एवं उन्हें बाहरी कार्य के साथ घर का काम भी करना, कार्य में वेतन असमानता, कार्यस्थल पर बुनियादी सुविधाओं एवं सुरक्षा का अभाव तथा यौन उत्पीडऩ की समस्याएं है।
महिलाओं का राजनैतिक प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए संसद/विधानसभाओं में उनके लिए 33 प्रतिशत आरक्षण संबंधी प्रावधान को शीघ्र क्रियान्वित करने तथा महिलाओं को दिये जाने वाले रोजगार में अंशकालीन रोजगार में पूर्णकालीन रोजगार की तरह रोजगार सुरक्षा, स्वास्थ्य सुविधा एवं अन्य सुविधाएं देने की आवश्यकता है। युवा महिलाओं को प्रेरित करने के लिए सफल महिला उद्यमियों एवं जन प्रतिनिधियों को रोलमॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जावे तथा विद्यालयों/महाविद्यालयों में महिलाओं के लिए नेतृत्व क्षमता विकसित करने वाले पाठ्यक्रम रखे जावें।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण है कि महिलाओं के अधिकार एवं गरिमा के सम्मान तथा जीवन के हर क्षेत्र में महिलाओं को बराबर समझने की सामाजिक सोच के बिना देश को सशक्त एवं विकसित बनाने की परिकल्पना साकार होना संभव नहीं है।
शुभकामनाओं सहित...