विकास की दौड़ में पिछड़ता पर्यावरण
पर्यावरण और आर्थिक विकास एक-दूसरे से जुड़े हैं। आर्थिक तरक्की पर्यावरण को तथा पर्यावरण संसाधनों में गिरावट आर्थिक विकास को प्रभावित करती है। आर्थिक संपन्नता हासिल करने की होड़ ने औद्योगीकरण और शहरीकरण को बढ़ाया है। इस कारण प्रदूषण में हुई वृद्धि का प्रभाव हमारे संपूर्ण ईको सिस्टम पर पड़ रहा है। आर्थिक वृद्धि प्राकृतिक संसाधनों के अनुकूलतम उपयोग पर आधारित होना चाहिए तथा विकास को पर्यावरण की दृष्टि से संतुलित रखना चाहिए। पर्यावरण और प्राकृतिक संसाधनों के उचित सामंजस्य के बिना गरीबी उन्मूलन और स्थायी समृद्धि प्राप्त नहीं की जा सकती।
अनियंत्रित औद्योगिक विकास के फलस्वरूप निकले विषाक्त कचरे को नदियों में बहाने से संपूर्ण विश्व में स्वच्छ जल का संकट उत्पन्न हो गया है। रासायनिक खादों और कीटनाशकों के अधिक प्रयोग से कृषि योग्य भूमि बंजर हो रही है। औद्योगिक विकास के लिए कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ, पनबिजली एवं आण्विक शक्ति के अत्याधिक उपयोग से बढ़ते कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन से पर्यावरण संकट में पड़ गया है। सायबर क्रांति के फलस्वरूप ई-वेस्ट यानी इलेक्ट्रोनिक कचरा एवं सांस्कृतिक प्रदूषण नई समस्याओं के रूप में सामने है। औद्योगिक विकास जनित ग्लोबल वार्मिंग के फलस्वरूप ग्लेशियर पिघलने एवं वनों की अत्याधिक कटाई से नदियों में बाढ़ आ रही है। समुद्र का जल स्तर बढ़ रहा है, जिससे तटीय इलाकों में मैंग्रोव के जंगल नष्ट हो रहे हैं। समुद्री तूफानों की संख्या बढ़ रही है। प्रतिवर्ष समुद्र में करोड़ों टन कूड़ा-कचरा एवं खर-पतवार पहुंचने के कारण विश्व की लगभग एक चौथाई मूंगे की चट्टानें (कोरल रीफ) नष्ट हो चुकी है तथा संपूर्ण परिस्थिति तंत्र संकट में पड़ गया है।
पर्यावरण प्रदर्शन सूचकांक के आधार पर किए गए एक ताजा अध्ययन में पर्यावरण की दृष्टि से भारत का विश्व में 180वां स्थान बताया गया है। जो 2020 में 168 था। हालांकि हमारा प्रति व्यक्ति कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन 1.8 टन प्रति वर्ष है, जो विकसित देशों की तुलना में काफी कम है, परंतु बड़ी आबादी तथा विकास के लिए किए जा रहे तेज प्रयासों के फलस्वरूप समग्र कार्बन डाइ ऑक्साइड उत्सर्जन पर्यावरण पर बुरा प्रभाव डाल रहा है। हालांकि सरकार ने इस अध्ययन को पूरी तरह खारिज किया है, परंतु इसके निष्कर्षों को पूरी तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। पर्यावरण संरक्षण की लड़ाई विकसित और विकासशील देशों की लड़ाई बन गई है। विश्व के कार्बन उत्सर्जन में भारत का योगदान 9.2 प्रतिशत है। जब भारत वैश्विक उत्पादन केंद्र बनना चाहता है तो घरेलु जरूरत के साथ अतिरिक्त कच्चे माल की खपत और बढ़ेगी जिससे पर्यावरण को गंभीर नुकसान पहुंचेगा, जिसके विषम आर्थिक और सामाजिक नतीजे होंगे। गत वर्ष के राष्ट्रीय सर्वेक्षण में हालांकि देश में हरित आवरण में आंशिक वृद्धि बताई गई है जो मुख्यत: महानगरों के आसपास है। वास्तव में उत्तर पूर्व एवं हिमाचल में वन क्षेत्रों में चिंताजनक कमी हुई है।
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 48 तथा 51 में किए गए प्रावधानों, पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 एवं अन्य कानूनों में पर्यावरण संरक्षण संबंधी किए गए प्रावधानों को भी सही रूप में अमल में लाने की आवश्यकता है। औद्योगिक विकास के कारण बढ़ती हुई संसाधनों की खपत के फलस्वरूप पर्यावरण संरक्षण हेेतु तीन क्र, क्रद्गस्रह्वष्द्ग (कम उपयोग), क्रद्गष्4ष्द्यद्ग (पुन:चक्रण) तथा क्रद्गह्वह्यद्ग (पुन:उपयोग)पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जहां यूरोप अपनी खपत के सामान के 70 प्रतिशत को रिसायकल करता है। वहीं भारत 20 प्रतिशत करता है। भारत में 70 प्रतिशत कूड़े को ट्रीट नहीं किया जाता है, जो भूमि प्रदूषण का कारण बन रहा है। घरेलु स्तर पर कूड़ों को अलग-थलग करने के महत्व पर जोर देना होगा। जरुरत है कि प्रति व्यक्ति खपत बढऩे के साथ नागरिकों को यह भी पता चले कि उसके कारण कार्बन उत्सर्जन किस तरह बढ़ रहा है। स्कूल पाठ्यक्रम में बच्चों को पर्यावरण अनुकूल अर्थव्यवस्था पर जागरूक बनाना होगा तथा जनसामान्य को पर्यावरण अनुकूल आर्थिक विकास के मॉडल को अपनाने के बारे में प्रोत्साहित करना होगा।
शुभकामनाओं सहित....