विश्व वन्यजीव संगठन के अनुसार वर्तमान में पृथ्वी पर 10 करोड़ जीव-जन्तु हैं जो प्रतिवर्र्ष लगभग 0.01 प्रतिशत विलुप्त हो रहे हैं। अर्थात हम प्रतिवर्ष 1000 जीवों को हमेशा के लिए खो देते हैं। पिछले कुछ दशकों से देखा जा रहा है कि प्राणी जगत की प्रजातियों की विलुप्त होने की दर तेजी बढ़ती जा रही है। आज दुनिया में लगभग 10 लाख प्रजातियां विलुप्त होने के जोखिम में या विलुप्त होने की कगार पर हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार वर्तमान में लगभग 48 प्रतिशत प्रजातियां इस स्थिति में हैं। 1950 से अब तक लगभग 100 जीव प्रजातियां पूर्णत: विलुप्त हो गई हैं। विलुप्त होने से बचाने का सबसे  व्यवहारिक उपाय ऐसी प्रजातियों का संरक्षण ही है। विलुप्त हो चुकी प्रजातियों के पुनर्जीवन के लिए जीन एडिटिंग, क्लोनिंग जैसी वैज्ञानिक तकनीकों की अपनी सीमाएं तथा गंभीर पर्यावरणीय एवं नैतिक चुनौतियां है। 
पृथ्वी का विकास क्रम एक सतत प्रक्रिया है। करोड़ों साल से पृथ्वी की परिस्थितियों में बदलाव होते जा रहे हैं। इनके अनुसार जीवों में भी बदलाव होते हैं। कई प्रजातियां विकसित होती हैं तो कई नष्ट होती हैं। यह एक सतत प्रक्रिया है। अध्ययन से पता चला है कि अपनी उत्पत्ति के औसतन एक करोड़ वर्ष बाद कोई भी प्रजाति विलुप्त हो जाती है। माना जा रहा है कि पूरे इतिहास में जितनी भी प्रजातियां पृथ्वी पर उत्पन्न हुर्इं उनमें से लगभग 99.9 प्रतिशत अभी तक विलुप्त हो चुकी हैं। पिछली कुछ सदियों में मानवीय दखल के कारण प्रजातियां विलुप्त होने की दर ज्यादा तेज हो गई है। 
भारत में लगभग 45 हजार पेड-पौधों एवं 91 हजार जीवों की प्रजातियां है जिसमें 13.66 प्रतिशत पक्षी, 7.91 प्रतिशत उभयचर तथा 4.66 प्रतिशत मछलियां है। भारत में विलुप्त होने के खतरे वाले प्राणियों में बाघ, एशियाईं शेर, हिम तेंदुआ, एक सींग वाला गैंडा, काला हिरण, सिंह पूंछ वाला बंदर, दैदीप्यमान वृक्ष मेंढ़क, कश्मीरी लाल मृग, नीलगिरी थार, गौर, गिद्ध, गौरिया प्रमुख हैं। 
 मानव गतिविधियां जैसे वनों की कटाई, शहरीकरण, अवैध शिकार और कृषि से अनेक प्रजातियों के आवास नष्ट हो रहे हैं। अत्याधिक शिकार के कारण उत्पन्न खतरे से उनकी संख्या कम तो हो ही रही है साथ ही प्रजनन क्षमता भी कम हो रही है। जलवायु परितर्वन से तापमान में वृद्धि के कारण समुद्र स्तर का बढऩा और मौसम के पैटर्न में बदलाव हो रहा है जिससे कई प्रजातियों को उनके आवास छोडऩे या उनके विलुप्त होने का खतरा हो रहा है। उद्योगों और वाहनों से होने वाले प्रदूषण से पानी और हवा दूषित हो रहे हैं, जिससे कई प्रजातियों को नुकसान हो रहा है। गैर देशी प्रजातियां जब नवीन क्षेत्रों में प्रवेश करती है तो स्थानीय प्रजातियों के लिए खतरा बन सकती है क्योंकि वह उनके साथ प्रतिस्पर्धा करती है। 
प्रजातियों के विलुप्त होने के अनेक दुष्प्रभाव हंै; जैसे जैवविविधता में कमी, पारिस्थतिकी का कमजोर होना तथा पारिस्थितिकी तंत्र क्रियाओं का नुकसान। इसका मानव स्वास्थ पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है क्योंकि यह मानव खाद्य श्रृंखला को प्रभावित कर सकती है और रोगों के प्रसार को बढ़ावा दे सकती है। 
हाल ही में वैज्ञानिकों के द्वारा विलुप्त प्रजातियों के पुनर्जीवन के लिए जीन एडिटिंग एवं क्लोनिंग जैसी तकनीकों का प्रयोग किया जा रहा है। हाल ही में अमेरिका में एक निजी कंपनी के वैज्ञानिकों द्वारा कई वर्ष पूर्व विलुप्त हुई डायर वुल्फ नामक भेडिय़ों की प्रजाति को अनुवांशिक तकनीक के द्वारा पुनर्जीवित करने की सफलता प्राप्त की है। इस तकनीक में डायर वुल्फ भेडिय़े के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए सीक्वेंस को पुन: तैयार किया गया तथा एक अन्य भू्रण में प्रत्यारोपित कर इनके तीन बच्चे पैदा किये गये। यह एक अत्यंत दिलचस्प प्रक्रिया तो है परंतु इसकी पर्यावरणीय एवं नैतिक चुनौतियां भी है। क्या  इस तरह से पुनर्जीवित प्रजातियां वर्तमान पर्यावरण में जीवित रह पायेगी।  साथ ही इस तरह के प्रयोगों में कहीं इस तरह के जीवों का सृजन न हो जाए जो दूसरी प्रजातियों को संकट में डाल दें। 'जुरासिक पार्कÓ फिल्म में करोडों वर्ष पूर्व विलुप्त हो चुके डायनासोर के जीवाश्म से प्राप्त डीएनए की मदद से पूरे डायनासोर को पुनर्जीवित करने के दुष्परिणामों के बारे में बताया गया था। इस तरह के वैज्ञानिक प्रयोगों के दौरान ऐसी गंभीर संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। 
वास्तव में प्रजातियों का विलुप्तीकरण रोकने लिए उनके संरक्षण के लिए जनजागरण बढ़ाना, अपने आसपास  पौधों और जानवरों पर हो रहे अत्याचार को रोकने की कोशिश करना, प्रदूषण नियंत्रण, वन्य जीवों से प्राप्त उत्पादों को न खरीदना ही प्रमुख उपाय हो सकते हैं। 

 शुभकामना सहित ...