तपती धरती : मानव सभ्यता के लिए खतरा

धरती का बढ़ता तापमान मानव सभ्यता के अस्तित्व के लिए गंभीर चुनौती बनता जा रहा है। संपूर्ण विश्व के साथ भारत भी धरती की बढ़ती तपिश का सामना कर रहा है। वर्ष 2015 में लगभग 200 देशों ने पेरिस समझौते में वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड या उससे कम तक सीमित करने का संकल्प लिया था। इसके लिए वर्ष 2030 तक कार्बन उत्सर्जन 45 प्रतिशत कम करना होगा। विकसित एवं विकासशील देशों में इस बारे में वैचारिक मतभेद बने हुए है। अत: प्राय: सभी देश अपने संकल्प को पूरा करने में सक्षम साबित नहीं हो रहे हैं। लगभग 4 वर्ष बाद अमेरिका एक बार पुन: इस समझौते से बाहर आ गया है। ऐसी दशा में धरती के बढ़ते तापमान पर अंकुश लगाने का लक्ष्य अत्यंत दुरूह दिखता है।
50 वर्ष के ऊपर के किसी भी व्यक्ति से मौसम के बारे में पूछने पर एक ही बात सामने आती है कि गर्मी बढ़ रही है, सर्दी बढ़ रही है, बारिश का पैटर्न बदल गया है, अब बारिश की झड़ी नहीं लगती और मौसम का कैलेण्डर बदलता जा रहा है। इस सबका मूल कारण है कि 1950 के बाद से विकास की तेज गति के चलते धरती का तापमान तेजी से बढ़ता जा रहा है। वनों की अंधाधुंध कटाई ने इस स्थिति को और विषम बना दिया है। 1880 जब से तापमान रिकॉर्ड करना शुरू हुआ तब से इतिहास के सबसे गर्म 10 वर्षों में से पिछले 9 वर्षों में ही हुए है। वर्ष 1850-1900 की तुलना में आज पृथ्वी का तापमान औसतन 1.2 से 1.4 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक है। पूर्वानुमान है कि 2027 तक पृथ्वी का तापमान 1850-1900 की तुलना में 1.5 डिग्री सेंटीग्रेड अधिक की सीमा को पार कर जाएगा। तापमान में 2 डिग्री सेंटीगे्रड से अधिक की वृद्धि पृथ्वी मानव सभ्यता के अस्तित्व के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न कर देगी।
धरती का तापमान बढऩे से हमारे पारिस्थितिकी तंत्र में भी आमूलचूल परिवर्तन आ रहे हैं। इसके कारण ध्रुवों में बर्फ पिघल रही है। अंटार्कटिक बर्फ पिघल कर अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच गई है। इसमें केवल 3.36 मिलियन वर्ग मील बर्फ शेष है। समुद्र का स्तर बढ़ रहा है तथा 1993 से अभी तक इसमें 9 सेंटीमीटर की वृद्धि हुई है तथा इस सदी के अंत तक यह 10 से 20 सेंटीमीटर और बढ़ जाएगा, जिसके कारण अनेक तटीय इलाके जलमग्न हो जायेंगे। 1850 की तुलना में महासागरों का अम्लीकरण 27 प्रतिशत बढ़ा है। जिससे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो रहा है। वैश्विक तापमान की वृद्धि से तूफान, बाढ़, जंगल की आग, सूखा और लू के खतरे बढ़ते जा रहे हंै। अत्याधिक गर्म जलवायु के कारण वर्षा के पैटर्न में बदलाव हो रहा है। उत्तरीय धु्रव के आसपास चलने वाली ठंडी हवाओं का ध्रुवीय भंवर कमजोर होने और कमजोर जेटस्ट्रीम के कारण यूरोप और उत्तर अमेरिका में अत्याधिक ठंड पढ़ रही है। जलवायु परिवर्तन के कारण फसलों की विविधिता में कमी आएगी तथा खाद्य उत्पादन में कमी के कारण खाद्य सुरक्षा का संकट उत्पन्न हो सकता है। बढ़ते तापमान के कारण मलेरिया जैसी बीमारियां तथा बढ़ते प्रदूषण के कारण श्वास संबंधी बीमारियों में वृद्धि देखी जा रही है। जंगलों के नष्ट होने के कारण मनुष्यों और जंगली जानवरों के बीच संपर्क बढ़ रहा है। बर्फ में नीचे छिपे रोगाणु भी मुक्त हो रहे हैं। फलस्वरूप इबोला वायरस एवं कोरोना जैसी नई बीमारियां फैलने की आशंका बनी रहेगी। कोलंबिया यूनिर्विसिटी के एक शोध में पाया गया है कि तापमान में वृद्धि तथा कार्बन डाईआक्साइड के बढ़ते स्तर के कारण धान की फसल में अकार्बनिक आर्सेनिक की मात्रा बहुत ज्यादा बढ़ सकती है जो 2050 तक एशिया की आबादी के लिए बड़ा खतरा बन सकती है।
ग्लोबल वार्मिंग की समस्या से निपटने के लिए मुख्य रूप से क्लोरो-फ्लोरो कार्बन गैसों का उत्सर्जन कम करने की आवश्यकता है। इसके लिए फ्रिज, एयरकंडीशनर और दूसरी कूलिंग मशीनों का प्रयोग कम करना होगा या ऐसी मशीनों का उपयोग करना होगा जिनसे ये गैसें कम निकलती हैं। औद्योगिक चिमनियों से निकलने वाले धुएं से उत्पन्न कार्बन डाईआक्साइड गैस गर्मी बढ़ाती है। इन इकाईओं में प्रदूषण रोकने के उपाय करने होंगे। वाहनों से निकलने वाले धुंओं का प्रभाव करने के लिए पर्यावरण मानकों का सख्ती से पालन करना होगा। उद्योगों और विशेष रूप से रासायनिक इकाईओं से निकलने वाले कचरे को फिर उपयोगी बनाने के प्रयास करने होंगे। पेड़ों की कटाई रोकने और जंगलों के संरक्षण पर बल देना होगा। आज बड़ी मात्रा में बिजली उत्पादन के लिए कोयला जलाया जाता है जिससे ग्लोबल वार्मिंग बढ़ रही है। परंपरागत ऊर्जा स्त्रोतों के स्थान पर अक्षय ऊर्जा के स्त्रोतों के उपयोग पर ज्यादा ध्यान देने की आवश्यकता है। इन सब उपायों के अपनाने पर ही धरती के बढ़ते तापमान पर अंकुश लगाया जा सकता है तथा इस धरती को आने वाली पीढिय़ों के रहने योग्य बनाया रखे जा सकेगा।
पृथ्वी दिवस की शुभकामना सहित ...