लौट आओ बसंत ...
प्रकृति और मानव एक-दूसरे के पूरक हैं। प्रकृति के बिना मानव अस्त्तिव की परिकल्पना नहीं की जा सकती है। मानव और प्रकृति का रिश्ता सहअस्तिव और सहकार का है। प्रकृति हमें कई महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है। जैसे पतझड़ का मतलब पेड़ का अंत नहीं है। फलों से लदे हुए झुके पेड़ हमें सफलता और प्रसिद्धि मिलने या संपन्न होने के बावजूद विनम्र और शालीन बने रहना सिखाते हैं। प्रकृति की सबसे बड़ी खासियत है कि वह अपनी चीजों का स्वयं उपभोग नहीं करती और नहीं किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात करती है। प्रकृति में हर किसी का महत्व है। मानव ने प्रकृति के इन तमाम गुणों को समझ कर ही अपने जीवन में अनेक सकारात्मक बदलाव किए हैं।
बसंत ऋतु आ गई है, परंतु उसको लेकर अब वह उल्लास नहीं रहता जो लगभग आधी शताब्दी पहले हुआ करता था। सीमेंट और कांक्रीट के जंगलों में तब्दील होते शहरों में बसंत का आना किसी भी तरह की उमंग एवं उत्साह का संचार नहीं करता। तकनीकी, संचार प्रौद्योगिकी और इंटरनेट के जंजाल ने दुनिया की दशा-दिशा और मनोविज्ञान को एकदम बदल सा दिया है। गांव-शहरों में तब्दील हो रहे हैं और शहर भीड़ के रेले में। इंसानियत खत्म होती जा रही है। हमने जल, जंगल और जमीन सब नष्ट कर दिए हैं। घटती जैवविविधता मानव जीवन को भी संकट की ओर धकेल रही है।
दिन-प्रतिदिन बदलती हुई तकनीकी के बोझ से भरी दुनिया में इन दिनों जैसे सब कुछ बदल सा गया है। काम से लदी मानव जिंदगी दिन-रात केवल टारगेट में उलझी रहते है। जीवन की तमाम विसंगतियों से गुजरते हुए और अभिव्यक्ति की वेदना को झेलते हुए जिंदगी की लड़ाई लड़ रहे आम से खास आदमी की दुनिया बेहद बदल गई है। हम प्राय: भूलते जा रहे हैं कि मनुष्य द्वारा प्रकृति से किए गए खिलवाड़ ही प्रकृति के गुस्से का कारण है, जिसे वह प्राय: सूखा, बाढ़, तूफान, ग्लोबल वार्मिंग के रूप में व्यक्त कर मनुष्य को सचेत करती है। हमने प्रकृति सेजो छेड़छाड़ की है, लगता है उसके कारण ही बसंत हमसे रूठ गया है।
प्रकृति गति और विकास का व्याकरण सिखाती है। हमें ऊर्जा का सही उपयोग करने और सीमाओं में रह कर जीने की सीख देती है, ताकि जीवन सतत चलता रहे। जल, जंगल और जमीन विकास के पर्याय हंै। जब तक यह हैं तब तक ही मानव का विकास होता रहेगा। जीवन के बिना विकास का कोई अर्थ नहीं है। आज विज्ञान की दुनिया में तकनीकी के बिना कुछ नहीं चल सकता और नई दुनिया के सृजन के लिए यह एक हद तक आवश्यक भी है। परंतु शायद हम यह भूल जाते हैं कि असली दुनिया तो प्रकृति और धरती की गोद में ही है।
स्वस्थ समाज के लिए मजबूत पारिस्थिति तंत्र, आर्थिक विकास, निरंतर गरीबी में कमी, मानव कल्याणकारी वातावरण और संसाधनों के संरक्षण की प्रवृत्ति आवश्यक है। मानसिक- शारीरिक स्वास्थ्य और पर्यावरण एक-दूसरे से जुड़े है। प्रदूषण निर्विवाद रूप से मानवीय क्षमता को कम करता है। यदि खराब वातावरण मानव स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता हैं तो अच्छा वातावरण स्वास्थ्य पोषक भी होता है। पर्यावरणीय खतरे इंसान को शारीरिक नुकसान तो पहुंचाते ही हैं साथ ही मनोवैज्ञानिक दबाव भी लाते ही हैं।
हम भले ही अपनी प्रकृति को भूल जाएं, प्रगति के जुनून में अपना स्वभाव खो दें, लेकिन प्रकृति अपना ढ़ंग नहीं छोड़ती। आज भी कहीं न कहीं कोयल वैसे ही कूक रही है और टेसू वैसे ही खिल रहे है। हम ही हैं जो इन सबसे नाता तोड़ बैठे हैं और जिंदगी में तनावों को न्यौता दे चुके हैं। हमारे मन में भी उल्लास की कोयल कूक सकती है। जरूरत है बसंत को अपने भीतर उतार लेने की। यह तभी संभव है कि जब हम प्राकृतिक संपदा के धनी क्षेत्रों में ऋतुओं के बदलने का ध्यान रखें और लहलहाते वृक्षों को कभी सूखने नहीं दें। तब ही हम इस नये एहसास के साथ मनमस्तिष्क से प्रफुल्लित होकर मानव जाति को एक नई दुनिया में ले जाएंगे, जो नई सोच-विचार की दुनिया होगी और तभी हमारे मन में तथा आसपास बसंत का पुनरागमन हो सकेगा।
बसंत ऋतु की शुभकामनाओं सहित....