धरती पर बढ़ता मानव बोझ
किसी देश में युवा तथा कार्यशील जनसंख्या की अधिकता तथा उससे होने वाले आर्थिक लाभ को जनसांख्यकीय लाभांश के रूप में देखा जाता है। मौजूदा समय में विश्व में सर्वाधिक जनसंख्या युवाओं की है। यदि शिक्षा गुणवत्तापरक न हो, रोजगार के अवसर सीमित हों, स्वास्थ्य एवं आर्थिक सुरक्षा के साधन उपलब्ध न हों तो बड़ी कार्यशील आबादी अभिशाप का रूप धारण कर सकती है। अत: विभिन्न देश अपने संसाधनों के अनुपात में ही जनसंख्या वृद्धि पर बल देते हैं।
वर्तमान में विश्व की आबादी लगभग 8 अरब है तथा 2030 तक यह 8.5 अरब, 2050 तक 9.7 अरब और 2100 तक 10.9 अरब पहुंच जाएगी। भारत की आबादी जो आजादी के समय लगभग 33 करोड़ थी, अब 140 करोड़ हो गई है तथा 2027 तक भारत विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश हो जाएगा। हालांकि भारत की जन संख्या वृद्धि दर लगातार कम होती जा रही है, परंतु अभी भी यह चिंताजनक स्तर पर है।
बढ़ती आबादी के कारण प्रकृति तथा प्राकृतिक संसाधनों के ऊपर बोझ बढ़ता जा रहा है। बढ़ती आबादी की आवास समस्या, शहरों का फैलाव, जंगल कटाई, बढ़ते वाहनों के प्रयोग एवं बढ़ी औद्योगिक गतिविधियों के कारण बढ़े प्रदूषण ने पर्यावरण को गंभीर क्षति पहुंचाई है। बड़ी आबादी के लिए खाद्यान्न व्यवस्था हेतु खेती पर बढ़ते दबाव ने रासायनिक खाद एवं कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग बढ़ाया है। नदियों तथा समुद्र प्रदूषित होते जा रहे हैं तथा ध्वनि प्रदूषण का यह हाल है कि कई लोगों की श्रवण शक्ति कम हो गई है। आबादी में बढ़ती युवाओं की संख्या उन्हें रोजगार के अवसर देने तथा उनका विकास कार्यों में समुचित उपयोग करने की चुनौतियां भी पैदा कर रही है।
माल्थस के अनुसार यदि बढ़ती जनसंख्या को नियंत्रित नहीं किया गया तो प्रकृति अपने क्रूर हाथों से इसे नियंत्रित करने का प्रयास करेगी, जो मानव के लिए घातक होगा।
आबादी बढऩे का एक मुख्य कारण लैंङ्क्षगक भेदभाव है। भारतीय समाज में तो नारी को सदैव दूसरे दर्ज का नागरिक माना जाता है। भारतीय समाज में पुत्र जन्म को सौभाग्य का अवसर माना जाता है तथा हम इस मिथ्या धारणा से ग्रस्त हंै कि पुत्र ही परिवार को आर्थिक मजबूती प्रदान करता और माता-पिता के बुढ़ापे की लाठी बनता है। बेटियां परिवार में अनावश्यक बोझ मानी जाता है। दहेज जैसी कुप्रथा से बेटियों को एक समस्या के रूप में ही देखा जाता है। पुत्र जन्म की चाह में अनेक संतानों को जन्म देना भी जनसंख्या वृद्धि का एक प्रमुख कारण है। गर्भस्थ शिशु की अवैधानिक लिंग जांच के चलते कन्या भू्रण हत्या को बढ़ावा मिला है। फलस्वरूप लिंग अनुपात में असामान्य गिरावट आई है।
परिवार नियोजन अपनाने के अतिरिक्त कानून बना कर भी जनसंख्या नियंत्रित करने के सुझाव दिए जा रहे हंै, परंतु यह न तो व्यवहारिक है और नहीं सुगम। अनेक धार्मिक मान्यताएं भी इसके आड़े आएंगी। वास्तव में जन चेतना एवं शिक्षा के द्वारा ही जनसामान्य को जनसंख्या नियंत्रण हेतु प्रेरित किया जा सकता है। बालिका शिक्षा की ओर ध्यान देकर उन्हें समाज में जनसंख्या नियंत्रण हेतु एक बेहतर योगदान के लिए तैयार किया जा सकता है। बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं भी जनसंख्या नियंत्रण में सहायक होती हैं।
जनसंख्या नियंत्रण में सर्वाधिक महत्वपूर्ण योगदान महिलाएं ही दे सकती हैं। वैसे भी हमारे समाज में परिवार नियोजन का उपाय अपनाने की जिम्मेदारी नारी पर ही डाली जाती है। देखा गया है कि यदि नारी शिक्षित होती है तथा आर्थिक में रूप से सशक्त हो तो ऐसे समाज में जनसंख्या नियंत्रण एक आसान कार्य होता है। हमारे देश में केरल इसका एक ज्वलंत उदाहरण है।
जब तक जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम में नारी सशक्तिकरण की अवधारणा का समावेश नहीं होगा और इसे नारी के सामाजिक- परिवारिक- आर्थिक- धार्मिक जीवन की उन्नति से जोड़ नहीं जाएगा, तब तक जनसंख्या नियंत्रण की सफलता संदिग्ध बनी रहेगी।
शुभकामना सहित ...