शिक्षक और हमारी शिक्षा व्यवस्था
देश में 1200 से अधिक विश्वविद्यालय एवं 46 हजार से अधिक महाविद्यालय है, परंतु विश्व के सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थानों में प्रथम 1000 की सूची में देश के केवल 31 संस्थान हंै। इस सूची में सबसे ऊपर 118वें स्थान में पर आईआईटी मुंबई तथा विश्वविद्यालयों में सबसे ऊपर 328वें स्थान पर दिल्ली विश्वविद्यालय हंै। देश के विभिन्न संस्थानों में किये जा रहे शोध का विश्व स्तर पर योगदान भी प्राय:नगण्य है। यह विडंबना है कि निजी विद्यालयों के शिक्षकों का वेतन सरकारी विद्यालयों के शिक्षकों की तुलना में कम होता है, परंतु वहां की शिक्षा की गुणवत्ता कई बार शासकीय विद्यालयों से बेहतर होती है। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण के कारण शिक्षा का व्यवसायीकरण होता जा रहा है, जिसके कारण अच्छी शिक्षा निम्न आय वर्ग के बच्चों की पहुंच के बाहर होती जा रही है।
गुरू गोविन्द दोऊ खड़े काके लागूं पाय।
बलिहारी गुरू आपने, जिन गोविन्द दियो बताय।।
किसी भी व्यक्ति के व्यक्तित्व विकास के लिए शिक्षा सबसे महत्वपूर्ण है। यह जहां उसे समाज में एक जिम्मेदार नागरिक के रूप में स्थापित करती है वहीं उसके जीवन यापन के साधन मुहय्या कराने में भी सहायक होती है। इसीलिए कबीर दास ने गुरू/ शिक्षक भगवान से भी ऊपर बताया है। स्वाभाविक है कि किसी भी व्यक्ति के जीवन में उसके शिक्षक का बहुत महत्व है। इसीलिए शिक्षक को राष्ट्र निर्माता भी कहा जाता है। अनेक महान विभूतियों को बनाने में उनके शिक्षकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। प्राय: सभी माता-पिता अपने बच्चों को शिक्षा हेतु विद्यालय में प्रवेश दिलाकर उनके भविष्य के बारे में निश्चिंत हो जाते हैं तथा अपेक्षा करते है कि उन्हें विद्यालयों में अच्छी शिक्षा एवं चारित्रिक गुण प्राप्त होंगे।
परंतु वास्तविकता में हमारी वर्तमान शिक्षा व्यवस्था अपनी उद्देश्यों की पूर्ति नहीं कर पा रही है। देश में शिक्षित बेरोजगारों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। देश के अशिक्षित युवाओं में बेरोजगारी का प्रतिशत 3.4 है। जबकि उच्चतर माध्यमिक स्तर के युवाओं में यह 18.4 प्रतिशत तथा स्नातक युवाओं 29 प्रतिशत है। स्पष्ट तौर पर शिक्षा और रोजगार के बीच में कोई सामंजस्य नहीं है। इसका प्रमुख कारण शिक्षा की गुणवत्ता की कमी तथा उसमें कौशल विकास का अभाव होना है। देश में प्राय: किसी भी स्तर के रोजगार के लिए पुन: एक योग्यता परीक्षा ली जाना अभ्यार्थियों द्वारा पूर्व में प्राप्त शिक्षा को प्राय: नकारने जैसा है।
शिक्षा की वर्तमान स्थिति को देखते हुए शासन स्तर पर इस ओर किये जा रहे प्रयास पर्याप्त नहीं कहे जा सकते। अभी भी 6 प्रतिशत के लक्ष्य के विरुद्ध देश की जीडीपी की मात्र 3 प्रतिशत राशि शिक्षा पर खर्च की जाती है। देश के सरकारी विद्यालयों में लगभग 11 लाख शिक्षकों के स्थान रिक्त हंै, 1.1 लाख विद्यालय ऐसे है जहां पर मात्र एक शिक्षक है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में सरकारी विद्यालयों में 87 हजार शिक्षकों के रिक्त पद हैं। 2357 विद्यालय ऐसे है जहां कोई शिक्षक ही नहीं है तथा 8307 विद्यालयों में केवल एक शिक्षक है। देश के महाविद्यालयों में प्राध्यापकों के औसतन 35 प्रतिशत पद रिक्त हैं। आईआईटी, आईआईएम तथा केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों के लगभग 32 प्रतिशत पद रिक्त है। शिक्षा की गुणवत्ता का स्तर गिरने के लिए यह रिक्तियां भी बहुत हद तक जिम्मेदार है।
शिक्षकों की संख्याओं में कमी के साथ शिक्षकों की न्यून गुणवत्ता भी शिक्षा के स्तर में गिरावट का एक कारण है। शिक्षा देने के कौशल वाले योग्य व्यक्तियों का शिक्षक हेतु चयन करने तथा उन्हें लगातार प्रशिक्षण देकर उनकी गुणवत्ता बनाए रखने की आवश्यकता है। शिक्षकों का शिक्षण संबंधी कार्यों के अतिरिक्त अन्य दायित्वों में उपयोग शिक्षण कार्यों को प्रभावित करता है। हमारे पाठ्यक्रम प्राय: देश एवं समाज की आवश्यकताओं के अनुसार सुसंगत नहीं रहते तथा उनमें कौशल विकास पर ध्यान नहीं है। सरकारी विद्यालयों में अधोसंरचना की कमी तथा वहां के पढ़ाई के स्तर को देखते हुए जनसामान्य में निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को प्रवेश दिलाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। सरकारी विद्यालयों को शिक्षा की गुणवत्ता के मापदंड स्थापित करना चाहिए ताकि निजी विद्यालय उनका मुकाबला कर सकें। परंतु वास्तविकता इससे विपरीत है। शासकीय शिक्षण संस्थानों में गुणवत्ता सुधार के लिए सरकार और शिक्षकों द्वारा विशेष प्रयास किये जाने होंगे। शिक्षण संस्थानों पर किया जा रहा खर्च एक ऐसा विनिवेश है जो भविष्य में फल देगा तथा एक समर्थ एवं विकसित देश बनाने में सहायक होगा।
शिक्षक दिवस की शुभकामनाओं सहित...