सामाजिक न्याय और हम

सामाजिक न्याय का अर्थ है प्रत्येक व्यक्ति को जाति, नस्ल, लिंग के आधार पर किसी भेदभाव के बिना उसके व्यक्तित्व विकास के लिए समान सामाजिक अवसर उपलब्ध हों। इसके पांच मुख्य सिद्धांत हैं संसाधनों तक पहुंच, समानता, भागीदारी, विविधता और मानव अधिकार। यह समान आर्थिक, शैक्षणिक और कार्य स्थल के अवसरों को बढ़ावा देता है। संविधान निर्माताओं ने व्यक्तिगत स्वतंत्रताओं में सामाजिक न्याय में संतुलन स्थापित करने के उद्देश्य से संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकारों के रूप स्वतंत्रता और भाग-4 में राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अंतर्गत अनुच्छेद-38 में उल्लेख है कि राज्य लोगों के कल्याण को बढावा देने के लिए यथा संभव प्रभावी ढंग से एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित और विकसित करने का प्रयास करेगा, जिसमें सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय राष्ट्रीय जीवन के सभी संस्थाओं को अनुप्रमाणित करे।
सामाजिक न्याय सदैव से हमारे देश के दर्शन का महत्वूपर्ण आयाम रहा है। वसुधैव कुटुंबकम्, सर्वधर्म समभाव की भावना से भारतीय दर्शन सामाजिक न्याय के पक्ष में प्रारंभ से ही मुखर रहा है। भारतीय दर्शन में जहां एक ओर 'सर्वे भवन्तु सुखिना: सर्वे संतु निरामय: सर्वे भद्राणी पश्यन्तु: मा कश्चित दु:ख भाग्भवेत: अर्थात सभी सुखी हो, सभी निरोग हों, सभी शुभ का दर्शन करेंं और कोई दुखी न हो की संकल्पना की गई है, वहीं समानता पर आधारित बौद्ध एवं जैन धर्म का उदय तथा अशोक का 'धम्मÓ हमारी सामाजिक न्याय की संकल्पना की प्राचीनता को व्यक्त करता है।
स्वामी विवेकानंद का मानना था कि मानव ही ईश्वर का प्रतिनिधित्व करता है अत: ईश्वर प्राप्ति का सर्वोत्तम साधन मानव सेवा है। महात्मा गांधी ने सामाजिक न्याय की अवधारणा को 'सर्वोदयÓ नाम दिया है। उन्होंने ऐसे राज्य की स्थापना पर बल दिया जिसमें शीघ्रतम तथा कम कीमत पर न्याय और सभी तरह के भेदभाव की समाप्ति की व्यवस्था हो। अम्बेडकर के अनुसार भेदभावपूर्ण व्यवस्था में सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए कोई स्थान नहीं है।
हमारे संविधान की प्रस्तावना में समस्त नागरिकों को सामाजिक आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय दिलाने, विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता देने, प्रतिष्ठा और अवसर की समानता प्राप्त करने, व्यक्ति की गरिमा सुरक्षित करने वाली बंधुता को बढ़ाने के लिए एक सार्वभौमिक राज्य स्थापित करने का उल्लेख किया गया है। संविधान के भाग-3 में सामाजिक न्याय की दृष्टि से विधि के समक्ष समता सामाजिक स्थिति अर्थात धर्म, मूल देश, जाति, लिंग व जन्म स्थान के आधार पर विभेद का प्रतिषेध, राज्यधीन पदों पर अवसर की समानता, अस्पृश्यता का अंत, बेगार के प्रतिषेध एवं धार्मिक स्वतंत्रता का प्रावधान किया गया है। साथ ही महिला, दलित एवं वंचित वर्ग के हितों के साथ-साथ समाज एवं राष्ट्र हित में राज्यों को सकारात्मक भेदभाव पर आधारित कानून बनाने की अनुमति भी दी गई है, जिसकी परिणीति विभिन्न वर्गों को संविधान के माध्यम से स्थापित 'आरक्षणÓ के रूप में हुई है। संविधान के भाग-4 में नीति निदेशक तत्व के रूप में काम, शिक्षा एवं लोक सहायता पाने का अधिकार, काम की यथोचित एवं मानवोचित दशा, प्रसूति सहायता का प्रावधान, श्रमिकों के लिए निर्वाह मजदूरी, नागरिकों के लिए समान सिविल संहिता, सभी नागरिकों को जीविका के लिए पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार, समान काम के लिए समान वेतन, आय की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करने, किशोर वय को शोषण से तथा नैतिक व आर्थिक परित्याग से दूर करने संबंधित व्यवस्था बनाने के प्रावधान किये गए हंै।
सामाजिक न्याय की भावना संवैधानिक नैतिकता में प्रतिबिम्बित तो हुई है, लेकिन इसे सुनिश्चित करने के लिए इतनी मेहनत से बनाए गए इन महत्वपूर्ण प्रावधानों में से कई राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी तथा आम जनता, खासकर वंचित वर्गों में राजनीतिक-कानूनी साक्षरता की कमी के कारण ठीक लागू नहीं हो पाए हैं। राज्य अभी भी कमजोर वर्गों के लिए हमारे देश के कार्यस्थलों में भेदभाव मुक्त सामाजिक वातावरण विकसित करने और साथ ही अवसरों तक समान पहुँच बनाने में कई तरह से विफल रहा है।
अनेक ऐतिहासिक कारणों से हमारे समाज में सामाजिक असमानता के मुद्दे जैसे अस्पृश्यता, लैंगिक पूर्वाग्रह और सामाजिक जीवन में जाति आधारित पदानुक्रम अभी भी अधिकांश लोगों को सम्मानजनक जीवन जीने से वंचित करते हैं। समतावादी लोकतांत्रिक समाज के निर्माण की दिशा हमें उन अनेक बाधाओं को दूर करना होगा जो हाशिये पर रहने वाले लोगों के मानवाधिकारों की प्राप्ति में हमारी प्रगति को अवरुद्ध कर रही हैं। लैगिंक हिंसा, आर्थिक असमानता, जातिप्रथा, लैगिंक भेदभाव, बेरोजगारी, नस्लवाद, आय में असमानता, कार्य स्थल पर भेदभाव, गरीबी एवं खाद्य असुरक्षा को दूर करने के लिए सक्रिय प्रयासों की आवश्यता है। स्वास्थ्य सेवा, प्राथमिक सेवा एवं महिला सुरक्षा में सुधार के लिए भी राज्यों की ओर से विशेष प्रयास किए जाने होंगे जिससे संविधान में उल्लेखित सामजिक न्याय की अवधारणा को साकार किया जा सके।
शुभकामना सहित...