इस साल 4 मई को सुबह 6 बजे विधि-विधान के साथ बाबा बद्रीनाथ धाम के कपाट खोल दिए गए. ग्रीष्मकाल के दौरान बाबा बद्री की पूजा-अर्चना के लिए तिल के तेल का उपयोग किया जाता है, जो बहुत विशेष होता है क्योंकि यह सदियों पुरानी परंपरा से जुड़ा है, जो टिहरी के राज परिवार से जुड़ी है. चमोली जनपद स्थित बद्रीनाथ धाम में उपयोग होने वाले तिलों के तेल को निकालने की खास परंपरा है

 टिहरी सांसद और महारानी माला राज्यलक्ष्मी शाह ने कहा कि बाबा बद्रीनाथ के लिए हमारे पूर्वजों की सदियों पुरानी परंपरा है, जिसमें सिर्फ सुहागिन महिलाएं ही शामिल हो सकती हैं.

 इसमें महिलाओं के अलावा पुरुषों के शामिल होने की इजाजत नहीं होती है. बद्रीनाथ धाम की कृपा से यह सदियों पुरानी परंपरा ऐसे ही चल रही है, जो आगे भी जीवित रहेगी.

 रुद्रप्रयाग निवासी चंद्रा डंगवाल ने बताया कि टिहरी के नरेंद्रनगर राजमहल में महारानी और हम स्थानीय महिलाएं तिल के तेल को अपने हाथों से पिरोती हैं.

 बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने से पहले ही सदियों पुरानी गाडू घड़ी परंपरा के तहत टिहरी राज परिवार की महिलाओं के साथ प्रजा यानी अन्य महिलाएं व्रत लेकर मुंह पर पीले रंग का कपड़ा बांधकर तेल पिरोने का काम करती हैं.

 इसमें सबसे पहले पूजा करके तिल को सूप पर लेकर फटका जाता है, ताकि उसमें से सारी गंदगी निकल जाए. इसके बाद महारानी सबसे पहले ओखली में तिल डालकर उसे पिरोना शुरू करती हैं. यहां अन्य महिलाएं सिल-बट्टे की मदद से तिल की कुटाई करती हैं.

 इसके बाद हाथों से निकाले गए तिलों के तेल को चांदी के घड़े में भरकर बद्रीनाथ धाम के लिए रवाना कर दिया जाता है और बाबा बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने के बाद अगले 6 महीने तक उनके श्रृंगार और पूजा-अर्चना में इसका उपयोग होता है.